मीराबाई की जीवन परिचय l Biography of Merabai in hindi


मीराबाई की जीवनी l Biography of Merabai

मीराबाई (Merabai)  हिंदू आध्यात्मिक कवित्री थी। जिनके श्री कृष्ण के प्रति समर्पित भजन उत्तर भारत में बहुत प्रसिद्ध है।भजन और स्तुति की रचना कर आम आदमी को भगवान के समीप पहुंचने वाले संतो में और महात्माओं में मीराबाई का स्थान सबसे ऊपर है। मीरा का संबंध एक राजपूत परिवार से था। वे राजपूत राजकुमारी थी जो मेड़ता महाराज के छोटे भाई रतन सिंह की एकमात्र संतान थी।

उनकी शाही शिक्षा में संगीत और धर्म के साथ राजनीतिक व प्रशासन भी शामिल थे। एक साधु द्वारा बचपन में उन्हें कृष्ण की मूर्ति दिए जाने के साथ ही उनकी कृष्णभक्त की शुरुआत हुई जिनकी वह दिव्या प्रेम के रूप में याद करती थी। प्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवित्री मीराबाई जोधपुर राजस्थान के मेडवा राजकुल की राजकुमारी थी। विद्वानों ने इनकी जन्मदिन के संबंध में एकमत नहीं हैं।

 

Merabai

कुछ विद्वान इनका जन्म 1430 इसी मानते हैं और कुछ 1498 ई। मीराबाई (Merabai)  मेड़ता महाराज के छोटे भाई रतन की एकमात्र संतान थी। उनका जीवन बड़े दुख और कष्ट में गुजरा हुआ था। मीरा जब केवल 2 वर्ष की थी तब उनकी माता की मृत्यु हो गई थी। इसलिए इनके दादा राव दूदा उन्हें मेड़ता ले आए और अपनी देखरेख में उनका पालन पोषण किया। राव दूदा एक योद्धा होने के साथ अच्छे व्यक्ति भी थे और  इसके साथ-साथ भक्तो का आना जाना इनके थांबलगा रहता था। इसलिए मीरा छोटे से ही धार्मिक लोगों के संपर्क में आती रही। तलवार के  साथ ही उन्होंने तीर जैसे चालान शास्त्र, घुड़सवारी, रथ चालन आदि के साथ संगीत तथा आध्यात्मिक शिक्षा भी ली।

मीराबाई (Merabai) के बचपन में कृष्ण की ऐसी छवि बसी थी की बचपन से लेकर मृत्यु तक उन्होंने कृष्ण को ही अपना सब कुछ माना था। जोधपुर के राठौर रतन सिंह की इकलौती पुत्री मीराबाई का मन बचपन से ही कृष्ण भक्ति में बस गया था। उनका कृष्ण प्रेम बचपन की एक घटना की वजह से हुआ था जब वह छोटी थी तो एक दिन उनके पड़ोस में किसी अमीर व्यक्ति के यहां बारात आई थी। सभी स्त्रियां छत से खड़ी होकर बारात देख रही थी मीराबाई भी बारात देखने के लिए छत पर आ गई बारात को देख मीरा ने अपनी माता से पूछा कि मेरा दूल्हा कौन है? इस पर मीराबाई की माता ने उपवास में ही कृष्णा की मूर्ति की तरफ इशारा करते हुए कह दिया कि। यह बात मीराबाई की मन में समा गई और अब भी कृष्ण को अपना पति समझने लगी।

विवाह

मीराबाई (Merabai) के गुणों को देखकर ही मेवाड़ नरेश राणा संग्राम सिंह ने मीराबाई के घर अपनी बड़े बेटे भोजराज के लिए विवाह का प्रस्ताव भेजा था। यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया और भोजराज के साथ मीरा का शादी हो गया। इस शादी के लिए पहले तो मीराबाई ने मना कर दिया था लेकिन परिवार वालों की अधिक बल देने पर तैयार हो गई थी। वह फूट-फूट कर रोने लगी और विदाई के समय कृष्ण की वही मूर्ति अपने साथ ले गई जिसे उनकी मां ने उनका दूल्हा बताया था। मीराबाई ने लज्जा और परंपरा को त्याग कर अनूठे प्रेम और भक्ति का परिचय दिया हुआ था।

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पति की मौत

शादी के 10 साल बाद ही मीराबाई (Merabai) के पति भोजराज का मौत हो गया था। संभवत: उनके पति की योद्धा प्रांत घाव के कारण मौत हो गई थी। पति की मौत के बाद ससुराल में मीराबाई पर कई अत्याचार किए गए सन 1527 ईस्वी में बाबर और संग के युद्ध में मीरा के पति रतन सिंह मारे गए और लगभग सभी लोगों की मौत हुई संग की मौत के पश्चात भोजराज के छोटे भाई रतन सिंह सिंहासन सीन हुए निश्चय है कि अपने लोगों के जीवन काल में ही मीरा विधवा हो गई थी। सन 1531 ईस्वी में राणा रतन सिंह की मौत हुई और उनके सौतेले भाई विक्रमादित्य राणा बने। लौकिक प्रेम की आधा समय में ही इतिश्री होने पर मीरा ने पारलौकिक प्यार को अपनाया और कृष्ण भक्त हो गई थी। वे सत्संग, साधु सत्संग दर्शन और कृष्ण कीर्तन के आध्यात्मिक प्रवाह में पड़कर दुनिया को बेकार समझने लगी उन्हें राणा विक्रमादित्य और मंत्री विजयवर्गीय ने बहुत ज्यादा ही कष्ट पहुंचाया था। राणा ने अपनी बहन उदाबाई को भी मीरा को समझने के लिए भेजा पर कोई सफलता नहीं मिली। वे कुल मर्यादा को छोड़ भक्त जीवन अपना रही थी। मीरा को स्त्री होने के कारण चित्तौड़ के राजवंश की कुल वध होने के इस कारण तथा काल में विधवा हो जाने के कारण अपने समाज तथा वातावरण से कितना विरुद्ध सहना पड़ा उन्होंने अपने काव्य में इस परिवारिक संघर्ष के बारे में कई जगह उल्लेख किए हैं।

 1533 ई के लगभग मीरा (Merabai) को राव बीरमदेव ने मेड़ता बुला लिया मीरा के चित्तौड़ त्याग के बाद सन 1534 ईस्वी में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया था। विक्रमादित्य मारे गए तथा 13 सहस्त्र महिलाओं ने जौहर दिया। सन 1538 ईस्वी में जोधपुर के राव मालदेव ने बीमारदेव से मेड़ता छीन लिया। वे भाग कर अजमेर चले गए और मीरा ब्रज की तीर्थ यात्रा पर चल पड़ी।

सन 1539 ईस्वी में मीरा वृंदावन में रूप गोस्वामी से मिली वह कुछ दिन तक वहां रहकर सन 1546 ई के पहले ही  द्वारिका चली गई। उन्हें निर्गुण पंथी संतों और जोगियो के सत्संग से ईश्वर भक्ति संसार की अनीयित तथा विराट का अनुभव हुआ था। तत्कालीन समाज में मीराबाई को एक विद्रोहिणी माना गया। उनके धार्मिक क्रिया कलापराजदूत राजकुमारी और विधवा के लिए स्थापित नियमों के अनुकूल नहीं थे। वह अपना सबसे ज्यादा समय कृष्ण को समर्पित मंदिर में और भारत भर से आए साधुओं और तृतीय यात्रियों से मिलने तथा भक्त पदों की रचना की थी।

हत्या के प्रयास

पति की मौत के बाद मीराबाई (Merabai) की भक्ति दिन प्रतिदिन और भी बढ़ती गई। वह मंदिरों में जाकर वहां मौजूद कृष्ण भक्तों के सामने कृष्ण जी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थी मीरा के लिए आनंद का माहौल तो तब बना जब उनके कहने पर राजा महल में ही कृष्ण का एक मंदिर बनवा देते हैं। महल में मंदिर बन जाने से वक्त का ऐसा वातावरण बनता है कि वह साधु संतों का आना जाना शुरू हो जाता है।

मीराबाई के देवर राणा विक्रमजीत सिंह को यह सब बहुत बुरा लगता है ।उदा जी भी मीरा को समझते हैं। लेकिन मेरा दीन दुनिया भूलकर कृष्णा में रम जाती हैं ।और वैराग धारण कर जोगिया बन जाते हैं भोजराज के मौत के बाद सिंहासन पर बैठने वाले विक्रमजीत सिंह को मीराबाई का साधु संतों के साथ उठना बैठना पसंद नहीं था।  मीराबाई को मारने के लिए दो प्रयासों का चित्रण उनकी कविताओं में हुआ है। एक बार फूलों की टोकरी में एक जहरीले सांप भेजा गया लेकिन टोकरी खोलने पर उन्हें मूर्ति मिली एक अन्य अवसर पर उन्हें जहर का प्याला दिया गया लेकिन उसे पीकर भी मीराबाई को कोई नुकसान नहीं पहुंचा था।

द्वारिका में वास

इन सब की वजह से पीड़ित होकर मीराबाई ( Merabai) ने मेवाड़ छोड़कर मेड़ता आ गई लेकिन यहां भी उनका व्यवहार स्वीकार नहीं किया गया। अब वह तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ी और अत्यंत: द्वारिका में बस गई। वे मंदिरों में जाकर वहां मौजूद कृष्ण भक्तों के सामने कृष्ण की मूर्ति के आगे नाचती रहती थी। सन 1543 ई के पश्चात मीरा द्वारका में रन छोड़ की मूर्ति के समझ के नृत्य कीर्तन करने लगी।

सन 1546 ईस्वी में चित्तौड़ से कतिपय ब्राह्मण उन्हें बुलाने के लिए द्वारिका भेजे गए। कहते हैं कि मीरा रणछोड़ से आज्ञा लेने गई और उन्ही में अंतर्धान हो गई। जान पड़ता है कि ब्राह्मणों ने अपनी मर्यादा बचाने के लिए यह कथा गाती थी। सन 1554 ईस्वी में मीरा के नाम से चित्तौड़ के मंदिर में गिरधर लाल की मूर्त स्थापित हुई यह मीरा का स्मारक और उनके ईष्ट देव का मंदिर दोनों था। गुजरात में मीरा की पर्याप्त प्रसिद्ध हुई। हित हरिवंश तथा हरी रामदेव विकास जैसे वैष्णव भी उनके प्रति श्रद्धा भाव व्यक्त करने लगे थे।

पद

मीराबाई (Merabai) की महानता और उनकी लोकप्रियता उनके पदों और रचनाओं की वजह से भी थी। ये पद और रचनाएं राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषाओं में मिलते हैं। हृदय की गहरी पीड़ा विरह अनुभूति और प्रेम की तन्मयता से भरे हुए मीराबाई के पद अनमोल संपत्ति हैं। आंसुओं से भरे हुए पद गीत काव्य के उत्तम नमूने हैं।

मीराबाई ने अपने पदों में श्रृंगार रस, शांत रस का प्रयोग विशेष रूप से किया है। भावों की सुकुमारता और निरादंबरी सहज शैली की सरसता के कारण मीराबाई की व्यथासिक्ती पदावली बरबस ही सब को अपने ओर खींच लेती है। मीराबाई ने भक्त को एक नया आयाम दिया है। एक ऐसा स्थान जहां भगवान ही ईश्वर इंसान का सब कुछ होता है। संसार के सभी लोग उसे मोह से विचलित नहीं कर सकते। एक अच्छा खासा राज पाठ होने के बाद भी मीराबाई बैरागी बनी रही। उनकी कृष्ण भक्त एक अनूठी मिसाल रही है

पायो जी म्हे तो राम रतन धन पायो

मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई

मृत्यु

मीराबाई (Merabai) अपने युग से लेकर आज तक लोकप्रियता के शिखर पर हैं। उनके गीत या भजन आज भी हिंदी भाषी भारत वासियों के होठों पर है। मीराबाई के कई पद हिंदी फिल्मी गीतों का हिस्सा भी बन चुकी हैं। वह बहुत दिनों तक वृंदावन में रही और फिर द्वारिका चली गई जहां 1560 ईस्वी में हुए कृष्ण की मूर्ति में समा गई।

जब उदय सिंह राजा बने तो उन्हें यह जानकर बहुत निराशा हुई कि उनके परिवार में एक महान भक्त के साथ कैसा दुर्व्यवहार हुआ। तब उन्होंने अपने राज्य के कुछ ब्राह्मणों को मीराबाई को वापस लाने के लिए द्वारिका भेजा।जब द्वारा मीराबाई आने को राजी नहीं हुई तो ब्रह्मण जिद करने लगे कि वह भी वापस नहीं जाएंगे। उस समय द्वारिका में कृष्ण जन्माष्टमी आयोजन की तैयारी चल रही थी। मीराबाई ने कहा कि वह आयोजन से भाग लेकर चलेंगी। उसी दिन उत्सव चल रहा था भक्तगण भजन में मग्न थे। मीरा नाचते नाचते श्री रंग छोड़ राय जी के मंदिर के गर्भ ग्रह में प्रवेश कर गई और मंदिर के कपाट बंद हो गए जब द्वारा खोले गए तो देखा कि मेरा वहां नहीं थी उनका चीर मूर्ति के चारों ओर लिपट गया था।

 

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